नई दिल्ली:सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि इलाहाबाद और उत्तराखंड हाईकोर्ट एक के बाद एक ‘बिना दिमागी कसरत के’ दंडात्मक कार्रवाई या गिरफ्तारी से संरक्षण के आदेश पारित कर रहे हैं जबकि उन्हें निहित शक्ति का संयम से उपयोग करने के लिए कहा गया था।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने कहा है, हमने देखा है कि इलाहाबाद और उत्तराखंड हाईकोर्ट इस तरह का आदेश पारित कर रहे हैं जबकि मैसर्स निहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में हमने मुकदमों को रद्द करने को लेकर निर्देश जारी किए थे। पीठ ने यह टिप्पणी हत्या के एक मामले में एफआईआर रद्द करने की याचिका पर उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान की। पीठ ने कहा, यह एक गंभीर मामला है।
एफआईआर, आईपीसी की धारा-302(हत्या) के तहत दर्ज की गई थी। हाईकोर्ट की बेचैनी देखिए, उसने निर्देश दिया कि व्यक्ति 10 अगस्त तक समर्पण कर दे और उसी दिन जमानत पर फैसला हो जाए और अगर जमानत अर्जी खारिज हो जाती है तो सत्र न्यायालय उसी दिन जमानत याचिका पर सुनवाई करे। पीठ ने कहा कि यह एक चौंकाने वाला आदेश है। पीठ ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने अपने आदेश में दर्ज किया कि प्राथमिकी को रद्द करने की प्रार्थना नहीं की गई है और अन्य प्रार्थनाएं हानिकर नहीं हैं और इसलिए आरोपी को 10 अगस्त से पहले आत्मसमर्पण करना चाहिए। और अगर वह जमानत अर्जी लगाता है तो उसका निपटारा उसी दिन हो जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले का परीक्षण करने का निर्णय लेते हुए उत्तराखंड सरकार को नोटिस जारी किया है। गत 13 अप्रैल को जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस शाह की पीठ ने निहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर मामले में कई निर्देश पारित किए थे और कहा था कि पुलिस के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत संज्ञेय अपराध की जांच करने का अधिकार है और न्यायालय संज्ञेय अपराधों की किसी भी जांच को विफल नहीं करेंगे। इस फैसले में कहा गया था कि दुर्लभ मामलों में एफआईआर को रद्द करने की शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए।