उत्तराखंड राज्य अब तक चार विधानसभा चुनावों से गुजर चुका है जिसमें दो बार सत्ता कांग्रेस और दो बार सत्ता बीजेपी के हाथों मे आई है।उत्तराखंड की राजनीति मे अब तक यह मिथक रहा है कि लगातार कोई भी सत्ताधारी दल दोबारा सत्ता मे नही आया है।अब यह राज्य का पांचवां विधानसभा चुनाव है सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा ये तो निर्णायक दिन 10 मार्च को ही पता चलेगा कि राज्य की बागडोर कांग्रेस के पास जायेगी या फिर बीजेपी के ये तो जनता द्वारा दिये गये मतों की गणना से पता चलेगा।
उत्तराखंड के इस बार के विधानसभा चुनावों मे राज्य के मतदाताओं मे चुनावों के प्रति उत्साहित तो थे लेकिन किसी दल विशेष के प्रति लहर हो ऐसा कुछ महसूस नही हुआ।भारतीय राजनीति मे कभी भी कुछ भी असंभव नहीं होता कभी-2 ऐसे अप्रत्याशित परिणाम आ जाते हैं जिसकी किसी ने कल्पना भी नही की होती।उत्तराखंड के लोगों मे भावनात्मक रूप से स्थान रखने वाली उत्तराखंड क्रांति दल,मैदानी क्षेत्रों की राजनीति मे अपना अलग वर्चस्व रखने वाली बहुजन समाज पार्टी,उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव मे पहली बार कदम रखने वाली और आम जनता के मूलभूत समस्याओं को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनावी आगाज करने वाली आम आदमी पार्टी और बीजेपी व कांग्रेस से टिकट ना मिलने वाले बागियों की भूमिका को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता।ये सभी मिलकर राष्ट्रीय पार्टियों के सत्ता के समीकरणों को बिगाड़ सकते हैं।अगर चुनावों के परिणाम राष्ट्रीय पार्टियों के आशा के अनूरूप नही रहते तो ये इनकी सत्ता प्रप्ति की सीढियां भी बन सकते हैं।
देश के अधिकतर राज्यों में सरकार बनाने या राष्ट्रीय दलों के सत्ता का समीकरण बिगाड़ाने में क्षेत्रीय दलों की या जनता द्वारा चुने गए निर्दलीय उम्मीदवारों की अहम भूमिका होती है।
लेकिन हाल ही मे उत्तरखण्ड में हुए चुनाव मे जनमानस के मन को देख कर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है की उत्तराखंड मे तीसरे विकल्प का दम भर रहे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भाजपा व कांग्रेस को इस चिंता से मुक्त कर दिया है अगर पीछे मुड़कर देखा जाय तो क्षेत्रिये दल कहे जाने वाले दल उक्रांद हो या बहुजन समाज पार्टी दोनों ने ही प्रदेश में तीसरे विकल्प के तौर पर अपनी पहचान लगभग स्थापित कर ली थी परन्तु इन दलों के खेवनहार ही इनकी लुटिया डुबोने में सबसे आगे रहे या यू कहे सत्ता का मोह या अधिक महत्वाकांक्षाओं ने इन दलों को गर्त में धकेल दिया है।उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव 2022 सम्पन्न हो चुका है जनादेश मशीनों में बंन्द हो चुका है नतीजा क्या होगा ये तो 10 मार्च को पता चल ही जायेगा। लेकिन चुनाव को देखकर नही लगता की
जनता ने तीसरे विकल्प को कुछ खास महत्व दिया है।सत्ता के लिए मुख्य मुकाबला भाजपा व कांग्रेस के बीच ही सिमटकर रह गया है।
दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी जिसने दिल्ली की राजनीति मे उलटफेर कर बड़े-2 सुरमाओ को धूल चटाने का दम दिखाया।लेकिन आम आदमी पार्टी उत्तराखण्ड में कुछ दम दिखा पाएगी यह तो 10 मार्च का दिन बतायेगा।जिस प्रकार पिछले दो वर्षो से आम आदमी पार्टी अपने आप को प्रदेश में तीसरे विकल्प के रूप में दिखाने का प्रयास कर रही थी या कहे अपने दिल्ली मॉडल को प्रदेश की जनता के बीच सफलता के साथ रखने में कामयाब होती नज़र आ रही थी चाहे शिक्षा का मॉडल हो,बिजली,पानी या फिर केजरीवाल रोजगार गारंटी कार्ड आम आदमी पार्टी ने जनता को रुझाने मे कोई कोर कसर नही छोड़ी थी लेकिन अपने लचर व कमजोर संगठन के नेतृत्व के कारण चुनाव आते-2 ‘आप’ दूध में उबाल की तरह ठण्डी पड़ती नज़र आई और जनता के बीच अपने आप को तीसरे विकल्प के रूप में पेश करने में सफल नही हो पाई लेकिन पूरे प्रदेश की 70 विधानसभा सीटो पर अपने प्रत्याशी उतार कर ‘आप’ ने दम जरूर दिखाया है अब ये तो आने वाला समय बतायेगा की जनता ने आप की कौन सी गारन्टी पर मोहर लगाई है।
अपने आप को प्रदेश का तीसरा विकल्प कहने वाला उत्तराखण्ड क्रांति दल इस विधान सभा चुनाव मे अपने 70 प्रत्याशी भी नही उतार पाया उत्तराखंड प्रदेश के लोगों मे भावनात्मक लगाव रखने वाले क्षेत्रिय दल के लिए ये स्थिति दुर्भाग्य पूर्ण कहे तो ये अतिशोक्ति नही है।
यूकेडि के नेताओं की माने तो 2022 में उसके बिना सरकार बनाना असम्भव है वाला बयान हास्यव्यंग्य जैसा लगता है।
अब दावे तो अपने-2 स्तर पर सभी दल कर रहे हैं पर लगता है तीसरे विकल्प को लेकर राष्ट्रीय दलों की चिन्ता नाम मात्र है।
वैसे तो इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा की अंतरकलह ने दोनों के माथे पर चिंता की लकीरे खीच दी है। जबकि दोनों ही दल भारी बहुमत से अपनी अपनी जीत का दावा तो जरूर कर रहे है लेकिन दोनों ही दलों के नाराज़ और अपने क्षेत्रो में मजबूत पकड़ रखने वाले बागी प्रत्याशी भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकते है अगर बात 2017 विधान सभा चुनाव की करे तो सत्ता धारी भाजपा 57 सीटो के भारी संख्या बल के साथ सरकार बनाने में सफल रही और कॉग्रेस को मात्र 11 सीटो पर ही सबर करना पड़ा था। इसके विपरीत भाजपा प्रचण्ड बहुमत पाकर भी राज्य मे निर्णायक सरकार देने में असफल नज़र आई पिछले चार साल पूर्व मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत के अक्खड स्वभाव कहे या व्यक्तिगत निर्णय जिसमे देवस्थानम बोर्ड हो या गैरसेंण को कमिश्नरी बनाने का मामला उनके एक बाद एक सख्त कदम ने भाजपा को नेतृत्व परिवर्तन के लिए विवश कर दिया। भरी भरकम जनादेश मिलने पर भी भाजपा स्थाई सरकार देने में नाकाम साबित हुई।
अब देखना है जनता अगला मौका किसे देती है। कौन बनायेगा सरकार और कौन बनेगा किंग मेकर या फिर आगे आयेगा तीसरा विकल्प।
विपिन खन्ना
(वरिष्ठ पत्रकार)