उत्तराखंड: यूं तो न्यायपालिका और कार्यपालिका के अपने-अपने दायित्व हैं. इन दोनों का ही अपना एक कार्यक्षेत्र भी संविधान में तय किया गया है. लेकिन कई बार सरकार जब अपने दायित्व से चूक जाती है तो न्यायपालिका को आगे आकर इसमें सुधार करने के निर्देश देने पड़ते हैं. हालांकि, कई बार यह स्थिति सरकारों के लिए काफी मुश्किल भरी हो जाती है. उत्तराखंड में भी पिछले कुछ समय में हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों ने धामी सरकार की कार्यप्रणाली पर ना केवल सवाल खड़े किए, बल्कि सरकार को आईना दिखाने का भी काम किया गया है.
हाईकोर्ट ने पिछले कुछ समय में एक दो नहीं, बल्कि ऐसे दर्जनों फैसले दिए हैं. इसके बाद सरकार को संबंधित मामलों में सक्रिय होना पड़ा है. इनमें खासतौर पर भ्रष्टाचार और जनहित से जुड़े हुए मुद्दे हैं जिन पर फौरन कार्रवाई होनी चाहिए थी लेकिन सरकार, प्रशासन और विभागों के अफसर की हीला हवाली के कारण ऐसा नहीं हो पाया. अब जानिए उत्तराखंड के वह महत्वपूर्ण बड़े मामले जिसने सरकार को असहज कर दिया.
लोकायुक्त का गठन तीन महीने में करने के निर्देश: उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार को 3 महीने के भीतर लोकायुक्त नियुक्त करने के निर्देश दे दिए. मजे की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में अपने घोषणा पत्र में लोकायुक्त को नियुक्त करने का वादा किया था और सरकार बनने के 1 महीने में ही यह काम पूरा करने की समय सीमा भी जनता के सामने रखी थी.
लेकिन हैरत की बात यह है कि सरकार आई और मुख्यमंत्री के तौर पर त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गद्दी संभाली तो तत्कालीन सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने प्रदेश में लोकायुक्त की जरूरत नहीं होने की बात कह दी. हालांकि, लोकायुक्त नियुक्त करने के लिए खंडूड़ी सरकार से लेकर हरीश रावत सरकार तक भी बड़े-बड़े दावे किए गए. जनता को गुमराह करने वाली इस राजनीति पर भी हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देकर 3 महीने में सरकार को लोकायुक्त नियुक्त करने के आदेश दे दिए हैं, जिससे ना केवल सरकार में हड़कंप मचा हुआ है बल्कि एक असहज सी स्थिति भी बन गई है.